संत रैदास और सोने का कंगन (कहानी ) स्वैच्छिक प्रतियोगिता हेतु-24-Feb-2024
दिनांक- 24,02,2024 दिवस- शनिवार विषय - * रैदास और सोने का कंगन* स्वैच्छिक प्रतियोगिता हेतु
प्रभु जी तुम चंदन हम पानी। जाकी अंग-अंग बास समानी॥ प्रभु जी तुम घन बन हम मोरा। जैसे चितवत चंद चकोरा॥ प्रभु जी तुम दीपक हम बाती। जाकी जोति बरै दिन राती॥ प्रभु जी तुम मोती हम धागा। जैसे सोनहिं मिलत सोहागा। प्रभु जी तुम स्वामी हम दासा। ऐसी भक्ति करै 'रैदासा॥
उक्त पद के रचयिता, कबीरदास के गुरु भाई, समाज सुधारक, उच्च कोटि के संत, रामानंद के शिष्य रविदास जी ने भक्ति आंदोलन को एक नई दिशा दी। जिसका उल्लेख उनके द्वारा लिखित काव्यों में साक्षात् रूप में मिलता है।
संत रविदास जयंती हर साल माघ मास की पूर्णिमा तिथि को मनाई जाती है। इस साल रविदास जी की जयंती 24 फरवरी रविवार को मनाई जाएगी।
रविदासजी का जन्म माघ पूर्णिमा के दिन उत्तर प्रदेश के वाराणसी शहर स्थित गोवर्धनपुर गांँव में मांँ कालसा देवी और पिता संतोख दास के यहांँ एक निर्धन परिवार में 1376 ईस्वी में हुआ था। पंजाब में उन्हें रविदास के नाम से जाना जाता है। जबकि उत्तर प्रदेश, राजस्थान और मध्य प्रदेश में उन्हें रैदास के नाम से जाना जाता है। ऐसा कहा जाता है कि जिस दिन रविदास जी का जन्म हुआ था उस दिन माघ पूर्णिमा के साथ रविवार का दिन था इसलिए उनका नाम रविदास रखा गया।
उन्होंने अपने लेखन के माध्यम से अनेक आध्यात्मिक और सामाजिक संदेश दिए। उनके समय में सामाजिक, धार्मिक बुराइयांँ चरम पर थीं, लेकिन उनके सकारात्मक दृष्टिकोण को वो हिला भी नहीं पाईं। प्राचीनकाल से ही भारत में विभिन्न धर्मों तथा मतों के अनुयायी एक साथ निवास करते रहे हैं। इन सबमें मेल-जोल और भाईचारा बढ़ाने वाले संतों में रैदास का नाम अग्रगण्य है।
लोगों की नजरों में उनकी छवि एक मसीहा के रूप में थी। लोग उनकी तरफ़ उम्मीद की नजरों से देखते थे।
एक बार की बात है कुंभ का महोत्सव चल रहा था उसी समय पंडित गंगाराम संत रैदास से मिले और उनका बड़ा ही आवभगत किए। उनसे मुलाकात के पश्चात पंडित गंगाराम हरिद्वार कुंभ महोत्सव में शामिल होने जाने वाले थे । तब रैदास जी ने उन्हें एक सिक्का गंगा मांँ को उनकी तरफ़ से अर्पित करने के लिए यह कह कर दिया कि इसे तभी अर्पित करिएगा जब मांँ इसे अपने हाथ से लें।
पंडित गंगाराम रैदास जी द्वारा दिए गए सिक्के को सहर्ष स्वीकार कर हरिद्वार चले गए। वहाँ जाकर उन्होंने स्नान किया, पूजा अर्चना किया, गुरु वंदना किया और सिक्के को बिना गंगा मांँ को चढ़ाए ही भूल कर वापस लौट गए ।
अपनी इस भूल के कारण उन्हें रास्ते में ही मूर्छा आने लगी और ऐसा लगा वो मूर्छित होकर गिर पड़ेंगे ।जिस कारण वे मध्य मार्ग में ही बैठ गए। कुछ देर बैठने के पश्चात जब उन्हें आराम हुआ तो उन्हें समझ में आया कि उनसे भूल हो गई है और उन्हें याद आया कि उन्होंने संत रैदास जी द्वारा दिया गया सिक्का गंगा मांँ को अर्पित नहीं किया जिस कारण उन्हें मुर्छा आ रही है। अतः वे वापस कुंभ महोत्सव में गए वहांँ जाकर उन्होंने मांँ गंगे को अंतर्मन से पुकारा। गंगा मांँ अपना हाथ बाहर निकालीं और सिक्का सहर्ष स्वीकार कर लीं। और रैदास जी के लिए वापसी उपहार के रूप में एक कंगन भेंट दीं।
उस कंगन को पाकर गंगाराम के मन में लोभ आ गया और उन्होंने संत रैदास से छुपकर उस कंगन को अपनी पत्नी को भेंट स्वरूप दे दिया। कुछ समय के पश्चात पंडित गंगाराम की पत्नी को पैसों की आवश्यकता आन पड़ी जिसकी पूर्ति हेतु वो अपने पति के द्वारा दिए गए कंगन को सुनार के पास बेचने के मनसुबे से गईं। और कंगन को सुनार को बेच दी।
सुनार बहुत ही चालाक था, कंगन पाकर बड़ा ही प्रसन्न हुआ। उसने सोचा इतना सुंदर कंगन यदि मैं राजा को दिखाता हूंँ तो राजा को अवश्य ही पसंद आएगा और वो इसे रख लेंगे तथा इसके बदले मुझे ढेर सारा उपहार देंगे। उसने ऐसा ही किया गंगाराम की पत्नी से कंगन लेकर उस राज्य के राजा और रानी को दिखाया कंगन राजा को बड़ा ही पसंद आया। राजा ने कंगन सहर्ष स्वीकार कर लिया और सुनार को ढेर सारी स्वर्ण मुद्राएंँ देकर उसकी खाली झोली भर दिया। एक कंगन के बदले इतनी स्वर्ण मुद्राएंँ पाकर सुनार की ख़ुशी का ठिकाना नहीं था।
तत्पश्चात राजा अपनी रानी को प्रेम पूर्वक कंगन भेंट किया। रानी को कंगन बड़ा ही पसंद आया और उन्होंने राजा से कहा क्या आप किसी तरह इसका दूसरे हाथ का भी कंगन मेरे लिए नहीं मंँगवा सकते हैं ? राजा ने कहा प्रिये! मैं तुम्हारे लिए इसका दूसरा जोड़ा अवश्य ही मंँगवा सकता हूॅं। राजा ने उस सुनार को ख़बर भिजवाया कि जैसा कंगन मुझे भेंट किए थे वैसा ही एक और कंगन मुझे तीन दिन में लाकर दो वरना राजा के दंड का पात्र बनना पड़ेगा। इस ख़बर को सुनते ही सुनार के होश उड़ गए। आनन-फानन में जिस युवती ने उसे कंगन भेजा था उसके घर का पता लगाया और राजा के फरमान को बताया। राजा के इस तरह के फरमान को सुनकर गंगाराम को अपने किए पर पछतावा होने लगा। वह सोचने लगे यदि सुनार की जान पर पड़ी तो मुझ पर भी संकट के बादल अवश्य ही घहराएंँगे । उन्हें अपने किए पर पछतावा होने लगा, वह सोचने लगे मैंने क्यों रैदास जी से छल किया, शायद यह उसी छल का ही परिणाम है कि आज मेरी जान संकट में है।
इसी ऊहापोह में डूबते- उतराते पंडित गंगाराम संत रैदास की कुटिया पर तत्काल पहुंँचे और रैदास जी से बताए कि हरिद्वार कुंभ महोत्सव में जाते समय आपने जो सिक्का मां गंगा को भेंट करने के लिए मुझे दिया था मैंने जब उसे मांँ गंगा को भेंट किया तब मांँ ने मुझे वापसी उपहार स्वरूप एक सोने का कंगन दिया था, उस कंगन को देखकर मेरे मन में लालच आ गया और मैंने उसके बारे में आपको नहीं बताया और वह कंगन ले जाकर मैंने अपनी पत्नी को भेंट स्वरूप दे दिया। जिसे मेरी पत्नी ने एक सुनार के यहांँ बेच दिया और सुनार राजा को भेंट कर दिया अब राजा ने उससे वैसा ही दूसरा कंगन मांँगा है, यदि तीन दिन में दूसरा कंगन नहीं दिया गया तो राजा द्वारा उसे कठोर दंड दिया जाएगा। मुझे माफ़ कर दीजिए और कृपया मेरी कुछ मदद करिए। मेरी और सुनार की जान बचा लीजिए।रैदास जी बोले कोई बात नहीं तुमने मुझे बताए बगैर अपनी पत्नी को को कंगन भेंट कर दिया इसका पछतावा मत करो। वैसे भी वह कंगन मेरे किसी काम का नहीं था। मैं तुमसे तनिक भी नाराज़ नहीं हूं।रही दूसरे कंगन की बात तो मैं गंगा मैया से प्रार्थना करता हूंँ कि हे मा! इस ब्राह्मण का मान-सम्मान ,जान अब आप के हाथ है। इसकी लाज रख लीजिए।
ऐसा कहने के उपरांत रैदासजी ने अपनी वह कठौती उठाई जिसमें वे चर्म गलाते थे। उसमें जल भरा हुआ था।उन्होंने गंगा मैया का आह्वान कर अपनी कठौती से जल छिड़का तब साक्षात गंगा मांँ प्रकट हो गईं और रैदास जी के आग्रह पर उन्होंने एक और कंगन गंगाराम को दे दिया।
दूसरा कंगन पाकर गंगाराम के खुशी का ठिकाना नहीं रहा वह खुशी-खुशी कंगन सुनार को दे दिया और सुनार राजा को भेंटकर राजा के दंड से अपनी रक्षा कर पाया। किंतु रैदास जी को अपने बड़प्पन का बिल्कुल भी घमंड नहीं हुआ । वो सामान्य तरीके से जैसे रोज अपने कर्म को करते थे उस दिन भी कंगन गंगाराम को भेंट देने के पश्चात अपने कर्म में लग गए।
ऐसे महान थे संत रैदास, जो दूसरों के लिए मांँ का आवाहन कर कंगन ला सकते थे वो क्या अपने लिए नही? किंतु, उन्होंने अपने लिए कभी कोई भी भौतिक सुख-सुविधा न एकत्र कर अपने चर्मकार के कर्म को ही सदा मेहनत और ईमानदारी से करते हुए अपनी जीवन लीला समाप्त कर दिए।
सीख - भगवान कर्मकांड के नहीं ,भाव के भूखे होते हैं
साधना शाही, वाराणसी
kashish
27-Feb-2024 02:37 PM
Awesome
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RISHITA
26-Feb-2024 04:28 PM
V nice
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Mohammed urooj khan
26-Feb-2024 01:57 PM
👌🏾👌🏾👌🏾👌🏾
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